अमल अच्छा नहीं उस का जो डरता जाए है मुझ से वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से ये लुक़्मा है अजल का या तिरे हाथों का बीड़ा है न उगला जाए है मुझ से न निगला जाए है मुझ से कभी हिम्मत-शिकन तूफ़ाँ कभी साहिल का नज़्ज़ारा न डूबा जाए है मुझ से न तैरा जाए है मुझ से अदू के साथ तेरी दिल-लगी भी इक अजब शय है न रोका जाए है मुझ से न देखा जाए है मुझ से कभी तन्हाई में वो गुफ़्तुगू मुझ से लगावट की सर-ए-बाज़ार मिल जाए तो अकड़ा जाए है मुझ से वजूद-ए-आलम-ए-फ़ानी में ये आसानियाँ कैसी ख़ुदा का घर है दिल नज़दीक होता जाए है मुझ से अगर मैं देखता हूँ इस बयाबान-ए-चमन को 'शाद' कोई मंज़र अचानक दूर होता जाए है मुझ से