अना ज़दा था कहीं पर कहीं पर आन-ज़दा ज़मीं की ज़द से निकलने तक आसमान-ज़दा यहाँ पे दश्त ओ समुंदर की बात मत करना हमारे शहर का हर शख़्स है मकान-ज़दा ख़याल-ओ-ख़्वाब के मौसम बदलने वाले हैं हुजूम वहम-ओ-तसव्वुर में है गुमान-ज़दा तो बाल-ओ-पर की नुमाइश पे हर्फ़ आ जाता हवा का रुख़ न पलटता अगर उड़ान ज़दा हमारे ब'अद हमें ढूँडने के सब रस्ते हमारी ख़ाक में मिल जाएँगे निशान-ज़दा भँवर से डूब के उभरा तो ये खुला मुझ पर समुंदरी थीं हवाएँ मैं बादबान-ज़दा सब अपना हर्फ़-ए-मआनी बना रहे हैं 'शरर' ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ तो सदियों से हैं ज़बान-ज़दा