अपनी छलकती आँख के तारे गवाह हैं अश्कों में डूबे शब के नज़ारे गवाह हैं सूखा है मेरे जिस्म में कितना लहू न पूछ हालात के सुलगते शरारे गवाह हैं हम ने ही रूह फूंकी थी दश्त-ए-ख़याल में फ़ितरत के ये हसीन इशारे गवाह हैं सोते हैं मेरी फ़िक्र के अब तक रवाँ-दवाँ बहर-ए-वजूद के ये किनारे गवाह हैं मेरी उड़ान तारों के बिल्कुल क़रीब थी इल्म-ओ-हुनर के सारे ग़ुब्बारे गवाह हैं 'जामी' ने भी उरूज के देखे हैं रोज़-ओ-शब अज़्मत के वो तमाम मनारे गवाह हैं