अश्क आँखों में छुपा लेता हूँ मैं ग़म छुपाने के लिए हँसता हूँ मैं शर्म आती थी कभी तुझ से मुझे ज़िंदगी अब ख़ुद से शर्मिंदा हूँ मैं मुद्दतों से आईना देखा नहीं कोई बतलाए मुझे कैसा हूँ मैं ग़म ख़ुशी वहशत परेशानी सकूँ सैकड़ों चेहरों का इक चेहरा हूँ मैं है मुझी में हम-नफ़स मेरा कोई साँस वो लेता है और ज़िंदा हूँ मैं इतने खाए हैं सराबों से फ़रेब सामने दरिया है और प्यासा हूँ मैं याद आया है मुझे इक हम-सफ़र जब कभी इस राह से गुज़रा हूँ मैं चार जानिब एक सन्नाटा सुकूत ग़ालिबन बस्ती में अब तन्हा हूँ मैं मुझ को छूने का न कर अरमाँ 'शजर' तो मुझे महसूस कर कैसा हूँ मैं