अज़ अज़ल शौक़ किसी ग़ैर का दीवाना रहा
By tasnim-abbas-quraishiMarch 1, 2024
अज़ अज़ल शौक़ किसी ग़ैर का दीवाना रहा
और अपनों से हमेशा कोई अन-जाना रहा
दिन-ब-दिन गिरती गई अपने ही मे'यार से आप
हाए इस क़ौम को कोई ग़म-ए-फ़र्दा न रहा
ऐसा लगता है कि वाजिब हुआ जाना अपना
कोई इस देस में जब अपना शनासा न रहा
हम हक़ीक़त के तसव्वुर से रहे ना-मानूस
अपने हिस्से में हमेशा कोई अफ़्साना रहा
बाब-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा पर किया सर ख़म जब से
फिर नज़र में कोई दर और दरीचा न रहा
अब मुझे दान किए जाते हो जाने क्या क्या
जब मिरे होंटों पे कोई भी तक़ाज़ा न रहा
मुझ से नालाँ ही दिखाई दिया वो कहता हुआ
पहले 'तसनीम' तो अच्छा था अब अच्छा न रहा
और अपनों से हमेशा कोई अन-जाना रहा
दिन-ब-दिन गिरती गई अपने ही मे'यार से आप
हाए इस क़ौम को कोई ग़म-ए-फ़र्दा न रहा
ऐसा लगता है कि वाजिब हुआ जाना अपना
कोई इस देस में जब अपना शनासा न रहा
हम हक़ीक़त के तसव्वुर से रहे ना-मानूस
अपने हिस्से में हमेशा कोई अफ़्साना रहा
बाब-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा पर किया सर ख़म जब से
फिर नज़र में कोई दर और दरीचा न रहा
अब मुझे दान किए जाते हो जाने क्या क्या
जब मिरे होंटों पे कोई भी तक़ाज़ा न रहा
मुझ से नालाँ ही दिखाई दिया वो कहता हुआ
पहले 'तसनीम' तो अच्छा था अब अच्छा न रहा
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