ख़मोशी भी ज़बान-ए-मुद्दआ' मालूम होती है मोहब्बत इल्तिजा ही इल्तिजा मालूम होती है मैं अपने ख़ून-ए-नाहक़ की अब उन से दाद क्या चाहूँ नज़र उन की नदामत-आश्ना मालूम होती है मुझे तो अपनी बर्बादी का शिकवा है मुक़द्दर से ये मैं ने कब कहा उन की ख़ता मालूम होती है मुझे बर्बाद ग़म हो कर तिरे दर तक पहुँचना है ये बर्बादी मिरी ख़ुद रहनुमा मालूम होती है जवानी और बे-परवा ख़िरामी ऐ मआ'ज़-अल्लाह क़यामत है क़यामत ज़ेर-ए-पा मालूम होती है अलग है सब से अंदाज़-ए-जुनूँ मेरी मोहब्बत का मिरी वहशत ज़माने से जुदा मालूम होती है मिरी हर बात 'अज़्मत' तर्जुमान-ए-अहल-ए-आलम है ये दुनिया मुझ को मेरी हम-नवा मालूम होती है