बदन के साथ ही आशोब-ए-जाँ उठाए हुए

By farooq-noorFebruary 6, 2024
बदन के साथ ही आशोब-ए-जाँ उठाए हुए
चलो कुछ और ये बार-ए-गराँ उठाए हुए
हमारे जैसे तो दो चार दस ही होंगे यहाँ
ज़मीं पे फिरते हैं जो आसमाँ उठाए हुए


बढ़ा दी मौत ने कुछ और भी मिरी तकरीम
हैं हाथों हाथ मुझे मेहरबाँ उठाए हुए
हसीन बन के गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने
तमाम यार रहे बर्छियाँ उठाए हुए


'अजीब ख़्वाब ये देखा गुज़िश्ता शब मैं ने
खड़े हैं लोग मुझे दरमियाँ उठाए हुए
मैं उस के सामने कब तक रहूँगा सीना-सिपर
वो मुझ को देख रहा है कमाँ उठाए हुए


तमाम सहरा ही गुलशन दिखाई देता है
है तेरे पैरों के जब से निशाँ उठाए हुए
तमाम रात की रूदाद कह रही है 'नूर'
ये बुझती शम' लबों पर धुआँ उठाए हुए


41583 viewsghazalHindi