बाग़ से मुत्तसिल है एक गली
By ikram-arfiFebruary 6, 2024
बाग़ से मुत्तसिल है एक गली
जहाँ खिलती है मेरे दिल की कली
महबस-ए-दिल में तुम नहीं आए
एक दिन तो यहाँ हवा भी चली
तेरी फ़ुर्क़त के दाग़ दिल में रखे
तेरे कूचे की ख़ाक मुँह पे मली
एक तू है कि है नज़र आता
एक मैं हूँ कि हूँ ख़फ़ी न जली
ज़र-ए-ख़ैरात फेंक देता हूँ
कौन चक्खे सख़ावतों की डली
सूखने वाले फिर हरे न हुए
राह की घास फिर न फूली-फली
पूछते हो कि कौन है 'इकराम'
कभी देखा है क्या जदीद 'वली'
जहाँ खिलती है मेरे दिल की कली
महबस-ए-दिल में तुम नहीं आए
एक दिन तो यहाँ हवा भी चली
तेरी फ़ुर्क़त के दाग़ दिल में रखे
तेरे कूचे की ख़ाक मुँह पे मली
एक तू है कि है नज़र आता
एक मैं हूँ कि हूँ ख़फ़ी न जली
ज़र-ए-ख़ैरात फेंक देता हूँ
कौन चक्खे सख़ावतों की डली
सूखने वाले फिर हरे न हुए
राह की घास फिर न फूली-फली
पूछते हो कि कौन है 'इकराम'
कभी देखा है क्या जदीद 'वली'
58811 viewsghazal • Hindi