बहिश्त-ज़ार हसीं गुल-कदे में रहते थे
By rana-mohammad-yusufMay 8, 2022
बहिश्त-ज़ार हसीं गुल-कदे में रहते थे
हम एक साथ किसी मिंतक़े में रहते थे
न जाने कौन से पल का था इंतिज़ार हमें
न जाने कब से हम इक दूसरे में रहते थे
यहीं कहीं थे परेशान ख़्वाब की सूरत
कभी तो नींद कभी रतजगे में रहते थे
बहुत सी झीलें तिरे चश्म-ओ-लब से मिलती थीं
बहुत से पेड़ मिरे रास्ते में रहते थे
ज़मानों बाद कहीं सामना हुआ अपना
सफ़र में थे मगर इक दाएरे में रहते थे
कहीं जगह ही नहीं थी हमें समाने को
हम अपनी ज़ात के हैरत-कदे में रहते थे
हमारी रौशनी तो एक थी वजूद अलग
कि दो चराग़ थे इक ताक़चे में रहते थे
यक़ीन जान कि इक दूसरे का अक्स थे हम
और एक साथ किसी आइने में रहते थे
अजीब गोशा-ए-तन्हाई में पड़ा हुआ हूँ
तमाम लोग कभी राब्ते में रहते थे
हम एक साथ किसी मिंतक़े में रहते थे
न जाने कौन से पल का था इंतिज़ार हमें
न जाने कब से हम इक दूसरे में रहते थे
यहीं कहीं थे परेशान ख़्वाब की सूरत
कभी तो नींद कभी रतजगे में रहते थे
बहुत सी झीलें तिरे चश्म-ओ-लब से मिलती थीं
बहुत से पेड़ मिरे रास्ते में रहते थे
ज़मानों बाद कहीं सामना हुआ अपना
सफ़र में थे मगर इक दाएरे में रहते थे
कहीं जगह ही नहीं थी हमें समाने को
हम अपनी ज़ात के हैरत-कदे में रहते थे
हमारी रौशनी तो एक थी वजूद अलग
कि दो चराग़ थे इक ताक़चे में रहते थे
यक़ीन जान कि इक दूसरे का अक्स थे हम
और एक साथ किसी आइने में रहते थे
अजीब गोशा-ए-तन्हाई में पड़ा हुआ हूँ
तमाम लोग कभी राब्ते में रहते थे
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