बस तमन्ना है इश्क़-ए-मौला में कि मरूँ मैं यही तमन्ना में इश्क़-ए-ख़ूबाँ नहीं है ऐसी शय बाँध कर रखिए जिस को पुड़िया में रुख़-ए-अफ़्शाँ में तेरे आलम-ए-नूर नम क़मर में है नम सुरय्या में यद-ए-बैज़ा का है ख़याल आता देख मेहंदी तिरे कफ़-ए-पा में तेरे बीमार-ए-हिज्र ऐ महबूब न तो मोती में हैं न अहया में वहदहू-ला-शरीक-ला है तू तुझ सा दुनिया में है न उक़्बा में तुझ को क्यूँ कर कहें हम हरजाई नूर तो जल्वा-गर है हर जा में क्या कहूँ दिन को किस क़दर रोया रात दिलबर को देख रूया में इश्क़ लगते ही हो गया मालूम हाल-ए-मज्नूँ इश्क़-ए-लैला में मरज़-ए-इश्क़ हुस्न-ए-ख़ूबाँ का मर्ग दरमाँ है नाम हुकमा में हासिल-उल-अम्र हम हुए बदनाम इश्क़ हुस्न-ए-बुतान-ए-ज़ेबा में रुख़-ए-यूसुफ़ से रुख़ मुशाबह है लब हैं मिलते लब-ए-मसीहा में आब-ए-बाराँ से गिर न पाए मदद ख़ाक पड़ जाए चश्म-ए-दरिया में ये दुआ हक़ से है मिरा 'मातम' दफ़्न हो कर्बला-मुअ'ल्ला में