बिछड़ कर तुझ से ऐ जान-ए-जिगर अच्छा नहीं लगता
By tariq-islam-kukraviMarch 1, 2024
बिछड़ कर तुझ से ऐ जान-ए-जिगर अच्छा नहीं लगता
ये तन्हा ज़िंदगी का अब सफ़र अच्छा नहीं लगता
क़सम अल्लाह की सच है बिना तेरे तसव्वुर के
ये शे'र-ओ-शा'इरी का अब हुनर अच्छा नहीं लगता
बड़ा बेचैन है ये दिल बड़ी बेताब हैं साँसें
कहाँ हो तुम चले आओ इधर अच्छा नहीं लगता
ये तेरी ही मोहब्बत का सनम नायाब जादू है
कि अपनी ही गली अपना ही घर अच्छा नहीं लगता
ये मानो या न मानो बात सच है हर तरह मेरी
न हो गर हम-सफ़र तो फिर सफ़र अच्छा नहीं होता
समर आएँ न पत्ते फूल ही जिस में कभी आएँ
किसी भी वक़्त यारो वो शजर अच्छा नहीं लगता
बड़े तुम खोए खोए हो उदासी दिल पे छाई है
कोई कहिये ग़ज़ल 'तारिक़' अगर अच्छा नहीं लगता
ये तन्हा ज़िंदगी का अब सफ़र अच्छा नहीं लगता
क़सम अल्लाह की सच है बिना तेरे तसव्वुर के
ये शे'र-ओ-शा'इरी का अब हुनर अच्छा नहीं लगता
बड़ा बेचैन है ये दिल बड़ी बेताब हैं साँसें
कहाँ हो तुम चले आओ इधर अच्छा नहीं लगता
ये तेरी ही मोहब्बत का सनम नायाब जादू है
कि अपनी ही गली अपना ही घर अच्छा नहीं लगता
ये मानो या न मानो बात सच है हर तरह मेरी
न हो गर हम-सफ़र तो फिर सफ़र अच्छा नहीं होता
समर आएँ न पत्ते फूल ही जिस में कभी आएँ
किसी भी वक़्त यारो वो शजर अच्छा नहीं लगता
बड़े तुम खोए खोए हो उदासी दिल पे छाई है
कोई कहिये ग़ज़ल 'तारिक़' अगर अच्छा नहीं लगता
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