दैर-ओ-काबा की अज़्मत मुसल्लम मगर मय-कदा भी ख़ुदा ही के घर सा लगे चाँद तारों की जो दे रहा है ख़बर देखने में तो वो बे-ख़बर सा लगे गुमरही में भी दीवाना-ए-दिल-फ़िगार मंज़िल-ए-होश का राहबर सा लगे ये जहाँ रश्क-ए-जन्नत है किस के लिए और किसी को यही दर्द-ए-सर सा लगे झील में अध-खिले फूल पर चाँदनी हम को मंज़र ये तेरी नज़र सा लगे शम-ए-बज़्म-ए-अदब था वो कल तक मगर आज 'लाग़र' चराग़-ए-सहर सा लगे