दर-ब-दर फिरता हूँ पर उन को नहीं पाता हूँ मैं

By raheemullah-shadJanuary 27, 2022
दर-ब-दर फिरता हूँ पर उन को नहीं पाता हूँ मैं
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं
ताक़-ए-निस्याँ हो गईं अब ज़िंदगी की शोख़ियाँ
कह नहीं सकता मगर सब कुछ कहे जाता हूँ मैं


कारवान-ए-ज़िंदगी रुक रुक के क्यों चलने लगा
चल नहीं सकता मगर फिर भी चला जाता हूँ मैं
मुनफ़रिद है ये ग़ज़ल और तरह का मिसरा भी है
कोई कातिब लिखता जाए जो भी लिखवाता हूँ मैं


आग का दरिया है और ये डूब कर जाना भी है
तैरता जाता हूँ जितना डूबता जाता हूँ मैं
ज़िंदगी में 'शाद' की है शादमानी का समाँ
हर क़दम हर मोड़ पर इक ज़िंदगी पाता हूँ मैं


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