दरिया है मुहाफ़िज़ तो कहीं तेज़ हवा है

By syed-zafar-kashipuriiFebruary 7, 2022
दरिया है मुहाफ़िज़ तो कहीं तेज़ हवा है
तूफ़ान में कश्ती का निगहबान ख़ुदा है
पत्ता जो अभी टूट के शाख़ों से गिरा है
इंसान की हस्ती का भरम खोल रहा है


शोहरत हो कि दौलत हो कि इज़्ज़त हो जहाँ में
जो कुछ भी मिला माँ की दुआओं से मिला है
जाए तो किधर जाए ये सहरा का मुसाफ़िर
साया न शजर है न किसी सम्त हवा है


क्या तुर्फ़ा-तमाशा है कि मुझ से मिरा क़ातिल
ख़ुद आ के मिरे घर का पता पूछ रहा है
इस दौर में क्या ढूँडते हो अद्ल-ए-जहाँगीर
मक़्तूल पे भी क़त्ल का इल्ज़ाम लगा है


अब पाँव के छाले भी नहीं देते गवाही
सहरा के सफ़र में ये अजब वक़्त पड़ा है
शायद कि भरम खुल गया इस राज़-ए-जुनूँ का
जो आज 'ज़फ़र' काँपते होंटों पे दुआ है


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