दीद-ए-दुनिया हबाब की सी है उस की ता'बीर ख़्वाब की सी है साक़िया मय कहाँ है शीशे में रौशनी आफ़्ताब की सी है पैरहन में नुमूद तन से तिरे हल्की एक तह शहाब की सी है किस का वस्फ़ दहन किया था कि आज मुँह में ख़ुश्बू गुलाब की सी है हालत अब दिल की हिज्र में 'मारूफ़' एक शहर-ए-ख़राब की सी है