देते हैं दुआ दर्द के मारे उसे कहना पलकों से ज़रा बोझ उतारे उसे कहना अब कोई भी रुत भाती नहीं दीदा-ए-दिल को लगते हैं सभी ज़हर नज़ारे उसे कहना होती ही नहीं हम से मोहब्बत की तिजारत इस दौर में हैं सिर्फ़ ख़सारे उसे कहना मुमकिन है मिरे लौट के आने का तसव्वुर इक बार मुझे दिल से पुकारे उसे कहना मैं रंग सजावट के सभी भूल चुकी हूँ अब आ के मिरा रूप निखारे उसे कहना इंसान भी अब साँपों की फ़ितरत में ढले हैं हर शख़्स अजब रूप है धारे उसे कहना बिखरे हुए अपने ही ख़द-ओ-ख़ाल में गुम हूँ आईने में फिर अक्स सँवारे उसे कहना कहना कि मिरी माँग में सूरज तो नहीं है पहलू में सजा दे सभी तारे उसे कहना