ढूँडते हो जिसे दफ़ीनों में वही वहशी है सब के सीनों में मेरे क़ाबील की रिवायत हैं पुर्ज़े जितने भी हैं मशीनों में सुब्ह-दम फिर से बाँट दी किस ने तीरगी शहर के मकीनों में भूक बोई गई है अब के बरस दाँत उग आए हैं ज़मीनों में ज़िंदगी गाँव की हसीं लड़की घिर गई है तमाश-बीनों में किस मुसाफ़िर की बात करते हो अब तो तूफ़ान हैं सफ़ीनों में किस मशक़्क़त के साँस लेता हूँ ये ग़ज़ल भी हुई महीनों में