दिल न दे साथ तो ग़म कैसे सहा जाएगा कि उसी घर में ये सैलाब-ए-बला जाएगा इक मुसाफ़िर है वो उस की कोई मंज़िल ही नहीं जिस तरफ़ भी क़दम उट्ठेंगे चला जाएगा मैं तो इस जब्र-ए-मुसलसल में भी लब-बस्ता नहीं यूँ समझ ले तिरा हर तीर ख़ता जाएगा बर्फ़ पिघलेगी तो मौसम भी बदल जाएँगे पौ फटेगी तो उजाला नज़र आ जाएगा लम्हा लम्हा मिरे होने की गवाही देगा पत्ते पत्ते पे मिरा नाम लिखा जाएगा रूह का ज़ख़्म है इस पर कोई मरहम न लगा ज़हर फैलेगा तो नस नस में समा जाएगा