दो-जहाँ को निगह-ए-इज्ज़ से अक्सर देखा

By abdul-hadi-wafaApril 23, 2024
दो-जहाँ को निगह-ए-इज्ज़ से अक्सर देखा
हम ने उम्मीद को हिरमाँ के बराबर देखा
तालेअ'-ए-बे-हुनरी औज-ए-फ़लक पर देखा
जिस जगह वहम न पहुँचा था वहाँ सर देखा


इस बुरे वक़्त में भी लाख से अच्छा हूँ मैं
मैं ने मा'शूक़ के पर्दा में मुक़द्दर देखा
क्या कहूँ क़िस्सा-ए-दिलचस्पी-ए-हाल-ए-अबतर
दोस्तों ने मुझे अग़्यार से बढ़ कर देखा


ऐ अजल ख़ूब बताया वो क़यामत होगी
जिस के आग़ोश में तू ने दिल-ए-मुज़्तर देखा
बेकसी-हा-ए-तमन्ना ने सुलाया है मुझे
फिर न जागूँगा अगर ख़्वाब में महशर देखा


यार जब पर्दा-नशीं है तो कहाँ का पर्दा
पर्दा ये है कि उसे पर्दे से बाहर देखा
पाँव फैलाए हैं बेजा हवस-ए-दुनिया ने
हम ने दुनिया ही को लिपटा हुआ बिस्तर देखा


इस खुले ज़ुल्म ने सब खोल दिए हैं पर्दे
हम ने देखा तुझे सौ बार सितमगर देखा
टपका पड़ता है रग-ए-शौक़ से ख़ून-ए-हसरत
क्या 'वफ़ा' दस्त-ए-क़ज़ा में कोई नश्तर देखा


43218 viewsghazalHindi