ऐ रश्क-ए-गुल-ए-तर तू कभी देख इधर भी काफ़ी है मिरे दिल पे तिरी एक नज़र भी ऐ जान-ए-जहाँ तेरा पता ख़ाक लगाएँ जब हम को मोहब्बत में नहीं अपनी ख़बर भी इक उम्र से हम कुश्ता-ए-आलाम-ओ-सितम हैं हो जाए कभी हम पे इनायत की नज़र भी वो मिल न सके हम को कहीं दश्त-ओ-जबल में ढूँडा है उन्हें हम ने सर-ए-राहगुज़र भी हम हुस्न के बंदे हैं परस्तार-ए-मोहब्बत पाएँगे हमें आप चले जाएँ जिधर भी गो तिश्ना-दहन मुहर-ब-लब बैठे हैं साक़ी हम भी तिरे बंदे हैं कोई जाम इधर भी वो अपनी जफ़ाओं पे पशेमान है 'रहबर' मासूम सी आँखों में है शबनम भी शरर भी