एक लहज़ा न ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ हम ने किया मौसम-ए-हिज्र में ये कार-ए-गराँ हम ने किया ये ज़मीं सख़्त थी असहाब-ए-मोहब्बत के लिए चश्मा-ए-अश्क यहाँ कैसे रवाँ हम ने किया कैसी वीरानी थी हम जिस में खिलाते रहे फूल क्या अयाँ था जिसे हर रोज़ निहाँ हम ने किया हम ने जो कुछ भी किया ग़म के हवाले से किया यूँ नहीं कार-ए-जुनूँ रह-गज़राँ हम ने किया ज़िंदगी तेरी जबीं यूँही चमकती रह जाए उस पे एक चाँद सजाने का गुमाँ हम ने किया