तिरी तल्ख़ी को चखूँ या तिरे हुस्न-ए-मआ'नी को
By faisal-azeemOctober 30, 2020
तिरी तल्ख़ी को चखूँ या तिरे हुस्न-ए-मआ'नी को
किताब-ए-ज़िंदगी किस ने लिखा मेरी कहानी को
तो सर-ता-पा कोई फ़ित्ना भी है शहकार-ए-फ़ितरत भी
मगर मैं ज़िंदगी के नाम कर आया जवानी को
ये किरनें फूटती हैं जो तिरे चाक-ए-गरेबाँ से
उन्ही के नूर से लिक्खा गया मेरी कहानी को
ये कब जाना किसी ने ऐ मुजस्सम राज़ तू क्या है
कि फ़ितरत ने कोई मरमर तराशा गुल-फ़िशानी को
कहीं ज़ख़्मी सदाएँ हैं कहीं नग़्मे मोहब्बत के
तू किस की सम्त मोड़ा जाए अब के ज़िंदगानी को
किताब-ए-ज़िंदगी किस ने लिखा मेरी कहानी को
तो सर-ता-पा कोई फ़ित्ना भी है शहकार-ए-फ़ितरत भी
मगर मैं ज़िंदगी के नाम कर आया जवानी को
ये किरनें फूटती हैं जो तिरे चाक-ए-गरेबाँ से
उन्ही के नूर से लिक्खा गया मेरी कहानी को
ये कब जाना किसी ने ऐ मुजस्सम राज़ तू क्या है
कि फ़ितरत ने कोई मरमर तराशा गुल-फ़िशानी को
कहीं ज़ख़्मी सदाएँ हैं कहीं नग़्मे मोहब्बत के
तू किस की सम्त मोड़ा जाए अब के ज़िंदगानी को
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