फ़लक उन से जो बढ़ कर बद-चलन होता तो क्या होता जवाँ से पेश-रौ पीर-ए-कुहन होता तो क्या होता मुसल्लम देख कर याक़ूब मुर्दे से हुए बद-तर जो यूसुफ़ का दरीदा पैरहन होता तो क्या होता हमारा कोह-ए-ग़म क्या संग-ए-ख़ारा है जो कट जाता अगर मर मर के ज़िंदा कोहकन होता तो क्या होता अता की चादर-ए-गर्द उस ने अपने मरने वालों को हुई ख़िल्क़त की ये सूरत कफ़न होता तो क्या होता निगह-बाँ जल गए चार आँखें होते देख कर उस से कलीम आसा कहीं वो हम-सुख़न होता तो क्या होता बड़ा बद-अहद है इस शोहरत-ए-ईफ़ा-ए-वादा पर अगर मशहूर तू पैमाँ-शिकन होता तो क्या होता मुक़द्दर में तो लिक्खी है गदाई कू-ए-जानाँ की अगर 'अफ़सर' शहंशाह-ए-ज़मन होता तो क्या होता