फ़रेब-ए-जल्वा कहाँ तक ब-रू-ए-कार रहे नक़ाब उठाओ कि कुछ दिन ज़रा बहार रहे ख़राब-ए-शौक़ रहे वक़्फ़-ए-इंतिज़ार रहे अब और क्या तिरे वादों का ए'तिबार रहे मैं राज़-ए-इश्क़ को रुस्वा करूँ मआज़-अल्लाह ये बात और है दिल पर न इख़्तियार रहे चमन में रख तो रहा हूँ बिना नशेमन की ख़ुदा करे कि ज़माना भी साज़गार रहे जुनूँ का रुख़ है हरीम-ए-हयात की जानिब इलाही पर्दा-ए-औहाम-ए-ए'तिबार रहे