फ़त्ह कितनी ख़ूब-सूरत है मगर कितनी गराँ

By abdul-aziz-khalidApril 23, 2024
फ़त्ह कितनी ख़ूब-सूरत है मगर कितनी गराँ
बारहा रद की है मैं ने दावत-ए-वस्ल-ए-बुताँ
नग़्मा-ए-बुलबुल है फ़र्याद-ए-विदा-ए-फ़स्ल-ए-गुल
सई-ए-हासिल दर-हक़ीक़त है मता-ए-राएगाँ


ज़िंदा रहने के हैं इम्कानात क्या आसार क्या
कौन सी क़द्रें हैं बाक़ी कौन सी सच्चाइयाँ
शाइ'रों का काम क्या तंसीक़-ए-औसाफ़-ओ-लुग़ूत
या सना शाहों की या मदह-ए-सरापा-ए-बुताँ


ज़हर है फ़न के लिए दरबार-दारी का मिज़ाज
कम-तरीन-ए-शर्त-ए-गोयाई है इख़लास-ए-बयाँ
तेरे हाथों पर लगा है बे-गुनाहों का लहू
जाम-ए-जम में मय नहीं ख़ून-ए-सियादिश है मुग़ाँ


मैं तो पीता हूँ फ़क़त गुलनार होंटों की शराब
सब्बेह-इस्म-ए-रब्बेकल-आला रहे विर्द-ए-ज़बाँ
ख़त्म हैं इस शोख़ रा'ना पर तरह-दारी के रंग
कद्द-ए-बाला जिस का है रश्क-ए-क़ज़ीब-ए-ख़ैज़राँ


झनझना उठने को हैं बेताब तन बीना के तार
कौन लाए ताब हुस्न-ए-बे-हिजाब-ए-मह-वशाँ
बे-नियाज़-ए-हर्फ़ है गुफ़्तार-ए-चश्म-ए-पुर-सुख़न
दरमियान-ए-महरमान-ए-जाँ है ना-महरम ज़बाँ


कोई तन्हाई का गोशा कोई कुंज-ए-आफ़ियत
'आशिक़-ओ-मा'शूक़ यकजा हों कहाँ ऐ आसमाँ
ऐ मुहिब्बो राह-ए-उल्फ़त में हर इक शय है मुबाह
किस ने खींचा है ख़त-ए-हिज्राँ तुम्हारे दरमियाँ


तितलियाँ देखी हैं बैठी ख़ुश्क फूलों पर कभी
हाजतें अपनी करो तुम ख़ूब-रूओं से बयाँ
हम ने नींदें दे के रातों से ख़रीदे रतजगे
हम से कम होंगे उकाज़-ए-दहर में बज़ारगाँ


रात-दिन सुनते हैं तसवीलात-ए-अर्बाब-ए-हसद
एहतियाज-ए-दुश्मनाँ भी है हुनर को बे-गुमाँ
जाने किन औक़ात में लिखता था क़ानून-ओ-शिफ़ा
बू-अली-सीना वो मक़्तूल-ए-मुग़ाँ शेवा-बुताँ


मौत से वहशत है लोगों को मोहब्बत माल से
बाँग-ए-बे-हंगाम है कूस-ए-रहील-ए-कारवाँ
है क़रीब ऐ शब ज़रा सुब्ह-ए-क़यामत का तुलूअ'
टूटने को है अज़ल-ताबाँ तनाब-ए-कहकशाँ


तुम अकेले आए दुनिया में अकेले जाओगे
ज़िंदगी इक पल है क्या पुल पर बनाते हो मकाँ
ख़िज़्र ज़िंदा है मगर ज़िंदानी-ए-उम्र-ए-अबद
ऐ अजल किस काम की ऐसी हयात-ए-जाविदाँ


मैं भी हूँ मानिंद मामूँ के अमीर-उल-काफ़रीं
बस-कि हूँ वारफ़्ता-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न-ए-यूनानियाँ
है सुलैमाँ की तरफ़ वाक़िफ़ लिसान-उत्तैर से
शाइ'र-ए-ज़ोहरा-निगाहाँ ख़ालिद-ए-उक़्दा-ज़बाँ


गो हरीम-ए-आगही की शक्ल भी देखी नहीं
है ब-ज़ोम-ए-ख़्वेश दाना-ए-रुमूज़-ए-कुन-फ़काँ
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