फ़ौरन सिपाह-ए-शूम की ललकार बंद हो
By azwar-shiraziFebruary 26, 2024
फ़ौरन सिपाह-ए-शूम की ललकार बंद हो
यूँही अलफ़ जलाल से मेरा समंद हो
अपने ही दिल पे जब मिरा क़ाबू नहीं रहा
कैसे किसी जहान पे मेरी कमंद हो
तेरे नवाह में कई कच्चे मकान हैं
इतना न सत्ह-ए-आब से दरिया बुलंद हो
इंसानियत वुजूद के जौहर का नाम है
सो आँख नम न हो भी तो दिल दर्द-मंद हो
उक्ता गया हूँ देख के हमवार ज़िंदगी
जी चाहता है अब कहीं पस्त-ओ-बुलंद हो
करता नहीं किसी के सहारे पे इंहिसार
जिस शख़्स का मिज़ाज हक़ीक़त-पसंद हो
चलता हूँ मैं भी साथ मु'आफ़ी के वास्ते
मुमकिन है मेरी ज़ात से पहुँचा गज़ंद हो
तब तक किसी के 'इश्क़ का दा'वा दरोग़ है
जब तक जिगर न सोख़तगी से सिपंद हो
मेरा निशान कौन-ओ-मकाँ ढूँडते फिरें
ऐसी हुदूद-ए-जिस्म से बाहर ज़क़ंद हो
यूँही अलफ़ जलाल से मेरा समंद हो
अपने ही दिल पे जब मिरा क़ाबू नहीं रहा
कैसे किसी जहान पे मेरी कमंद हो
तेरे नवाह में कई कच्चे मकान हैं
इतना न सत्ह-ए-आब से दरिया बुलंद हो
इंसानियत वुजूद के जौहर का नाम है
सो आँख नम न हो भी तो दिल दर्द-मंद हो
उक्ता गया हूँ देख के हमवार ज़िंदगी
जी चाहता है अब कहीं पस्त-ओ-बुलंद हो
करता नहीं किसी के सहारे पे इंहिसार
जिस शख़्स का मिज़ाज हक़ीक़त-पसंद हो
चलता हूँ मैं भी साथ मु'आफ़ी के वास्ते
मुमकिन है मेरी ज़ात से पहुँचा गज़ंद हो
तब तक किसी के 'इश्क़ का दा'वा दरोग़ है
जब तक जिगर न सोख़तगी से सिपंद हो
मेरा निशान कौन-ओ-मकाँ ढूँडते फिरें
ऐसी हुदूद-ए-जिस्म से बाहर ज़क़ंद हो
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