फिर एक बार तिरा तज़्किरा निकल आया मुझे तराशा तो पैकर तिरा निकल आया ये मेरे घर के दरीचों में रौशनी कैसी यहाँ चराग़ का क्या सिलसिला निकल आया जो नक़्श नक़्श असीरी का सेहर जानते थे उन आईनों से भी साया मिरा निकल आया मैं अपने शोर में कब तक दबा हुआ रहता सदाएँ देता हुआ बे-सदा निकल आया लिपट के रोता रहा वो बुझे चराग़ों से कि ताक़ ताक़ कोई सिलसिला निकल आया दिया था जिस को ज़माने ने तेरे क़ुर्ब का नाम मिरे ही क़दमों से वो फ़ासला निकल आया