ग़ज़ब की काट थी अब के हवा के तानों में शिगाफ़ पड़ गए हैं बे-ज़बाँ चटानों में हमारे होंट ही पत्थर के हैं वगरना मियाँ हम एक आग लिए फिरते हैं दहानों में बगूला बन के उठा तो मैं था ख़राबे से बपा हुआ न कोई हश्र आसमानों में सियाह शहर की क़िस्मत में मेरा फ़ैज़ कहाँ चराग़-ए-नज़्र हूँ जलता हूँ आस्तानों में टपक पड़ा हूँ बिल-आख़िर मैं अपनी आँखों से छुपा रखा था मुझे तुम ने किन ख़ज़ानों में सुकूत को न कभी कर सदा से आलूदा कि ये ज़बाँ है मुक़द्दस-तरीं ज़बानों में सुख़न-शनास फ़सीलों का है सुकूत ग़ज़ब सुख़न-तराज़ हैं ज़ंजीरें क़ैद-ख़ानों में