ग़म-ए-हिज्राँ से ज़रा यूँ भी निभाई जाए

By farogh-zaidiOctober 30, 2020
ग़म-ए-हिज्राँ से ज़रा यूँ भी निभाई जाए
महफ़िल-ए-ग़ैर सही आज सजाई जाए
इख़्तिलाफ़ात की बुनियाद है गहरी लेकिन
इस पे नफ़रत की न दीवार उठाई जाए


पहले मंज़िल का हम अपनी तो तअ'य्युन कर लें
फिर ज़माने को कोई राह दिखाई जाए
मय के बारे में ख़यालात बदल जाएँगे
हज़रत-ए-शैख़ को थोड़ी सी पिलाई जाए


सब के आ'माल पे तन्क़ीद है शेवा जिस का
बात किरदार पे उस के भी उठाई जाए
यूँ ही अक़्वाम की तक़दीर सँवरती है 'फ़रोग़'
ने'मत-ए-इल्म पे कुछ बात चलाई जाए


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