गर्दन-ए-शीशा झुका दे मिरे पैमाने पर सन बरसता रहे साक़ी तिरे मयख़ाने पर गर्मी-ए-हुस्न बढ़ी सर्द हुआ आशिक़-ए-ज़ार शम्अ' के फूल से बिजली गिरी परवाने पर गर्मियाँ हैं तो मिरा दीदा-ए-तर हाज़िर है छोटे मिज़्गाँ का हज़ारा तिरे ख़स-ख़ाने पर ग़श हुआ गर्दन-ए-साक़ी पे कभी आँख पे लूट कभी शीशा पे गिरा मैं कभी पैमाने पर वो भी ऐ 'क़द्र' था इक नक़्श-ए-क़दम हैदर का रखते थे मोहर-ए-नबूवत जो नबी शाने पर