हाल में अपने मगन हो फ़िक्र-ए-आइंदा न हो ये उसी इंसान से मुमकिन है जो ज़िंदा न हो कम से कम हर्फ़-ए-तमन्ना की सज़ा इतनी तो दे जुरअत-ए-जुर्म-ए-सुख़न भी मुझ को आइंदा न हो बे-गुनाही जुर्म था अपना सो इस कोशिश में हूँ सुर्ख़-रू मैं भी रहूँ क़ातिल भी शर्मिंदा न हो ज़ुल्मतों की मद्ह-ख़्वानी और इस अंदाज़ से ये किसी पर्वर्दा-ए-शब का नुमाइंदा न हो मैं बहर-सूरत तिरा कर्ब-ए-तग़ाफ़ुल सह गया अब मुझे इस का सिला दे सिर्फ़ शर्मिंदा न हो ज़िंदगी तिश्ना भी है बे-रंग भी लेकिन 'सुरूर' जब तलक चेहरा फ़रोग़-ए-मय से ताबिंदा न हो