हम पर करेगा रहमतें परवरदिगार भी हालात अपने होंगे कभी साज़गार भी तू ने भुला दी चाहतें क़ौल-ओ-क़रार भी हम मुंतज़िर रहे तिरे सरहद के पार भी हालाँकि कर चुका था वो तर्क-ए-तअल्लुक़ात पर काश मुड़ के देखता बस एक बार भी डेरा जमा लिया है ख़िज़ाँ ने कुछ इस तरह अब ख़ुश न कर सकेगी ये फ़स्ल-ए-बहार भी अपनी निगाह में तो रहे सुर्ख़-रू सदा इंसाँ में होना चाहिए इतना वक़ार भी ये अपने रहनुमाओं के वा'दों का है असर बे-ए'तिबार हो गया अब ए'तिबार भी ये कैसा दौर आ गया 'मीना' कि अब यहाँ सिक्कों के मोल बिकता है अपनों का प्यार भी