हमराह मिरे कोई मुसाफ़िर न चला था धोका मुझे ख़ुद अपनी ही आहट से हुआ था मसदूद हुई जिस की हर इक राह-ए-सरासर इस सफ़ में मुझे ला के खड़ा किस ने किया था जुम्बिश ही से होंटों की जो कुछ समझो तो समझो इस गुंग-महल में तो बस इतना ही रवा था ता'मीर हुए घर तो गए जाने कहाँ वो जिन ख़ाना-ब-दोशों का यहाँ ख़ेमा लगा था धुँदलाए ख़द-ओ-ख़ाल गर उस के तो अजब क्या देखे हुए यूँ भी उसे युग बीत गया था शब शो'ला-ब-दामाँ तो सहर सोख़्ता-सामाँ दो रूप बदलता था अजब वो भी दिया था