हर तरफ़ घनघोर तारीकी थी राह-जिस्म में
By salim-saleemFebruary 28, 2024
हर तरफ़ घनघोर तारीकी थी राह-जिस्म में
इक दिया जलता रहा बस बारगाह-ए-जिस्म में
रूह मेरी पाक थी और सर-ब-सर आज़ाद थी
मैं कि आलूदा हुआ फिर भी गुनाह-ए-जिस्म में
सुब्ह होने पर सभी हर्फ़-ए-दु'आ गुम हो गए
रात-भर बैठे रहे हम बारगाह-ए-जिस्म में
यार अब तू ही रिहाई की कोई सूरत निकाल
घिर गया चारों तरफ़ से मैं सिपाह-ए-जिस्म में
इक दिया जलता रहा बस बारगाह-ए-जिस्म में
रूह मेरी पाक थी और सर-ब-सर आज़ाद थी
मैं कि आलूदा हुआ फिर भी गुनाह-ए-जिस्म में
सुब्ह होने पर सभी हर्फ़-ए-दु'आ गुम हो गए
रात-भर बैठे रहे हम बारगाह-ए-जिस्म में
यार अब तू ही रिहाई की कोई सूरत निकाल
घिर गया चारों तरफ़ से मैं सिपाह-ए-जिस्म में
56748 viewsghazal • Hindi