हरगिज़ न हो ऐ दिल ग़म-ए-जानाँ की शिकायत

By akhtar-bastaviMarch 24, 2022
हरगिज़ न हो ऐ दिल ग़म-ए-जानाँ की शिकायत
करता है भला कोई भी मेहमाँ की शिकायत
आज़ाद थे कब क़ैद-ए-ग़म-ए-इश्क़ से हम को
ज़ंजीर का शिकवा है न ज़िंदाँ की शिकायत


वो ये न कहेंगे कि तुम्हें मौत न आई
किस मुँह से करें हम शब-ए-हिज्राँ की शिकायत
मशकूर-ए'जुनूँ आप हैं वहशी तिरे उन को
महमिल का गिला है न बयाबाँ की शिकायत


गो सब्र क़यामत का है दरकार पर ऐ दिल
याँ कुफ़्र है उस दुश्मन-ए-ईमाँ की शिकायत
शर्मिंदा कफ़न ने किया इस दर्जा कि ता हश्र
अब जेब का शिकवा है न दामाँ की शिकायत


था उन के तसव्वुर में भी इक वस्ल का आलम
हो सकती है फिर क्या शब-ए-हिज्राँ की शिकायत
क्यों फ़िक्र हो क्या अपने कभी दिन न फिरेंगे
बे-कार है फिर गर्दिश-ए-दौराँ की शिकायत


लड़ता है हवा से भी कोई लाख ख़फ़ा हो
बेजा है तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की शिकायत
हैं इश्क़ के बीमार भी दुनिया से निराले
है दर्द के बदले उन्हें दरमाँ की शिकायत


इन से न सितम का न तग़ाफ़ुल का गिला है
हो जाती है हाँ पाकी-ए-दामाँ की शिकायत
मंज़ूर नहीं जब उन्हें ख़ुद जल्वा दिखाना
क्यों कीजिए फिर हाजिब ओ दरबाँ की शिकायत


था नज़र अज़ल ही से दिल उस जान-ए-जहाँ की
करते रहो यूँ अबरू-ओ-मिज़्गाँ की शिकायत
मेहमाँ दिल-ए-'जौहर' का बिला-इज़्न सिधारा
पैकाँ तो गया रह गई पैकाँ की शिकायत


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