हरगिज़ न हो ऐ दिल ग़म-ए-जानाँ की शिकायत करता है भला कोई भी मेहमाँ की शिकायत आज़ाद थे कब क़ैद-ए-ग़म-ए-इश्क़ से हम को ज़ंजीर का शिकवा है न ज़िंदाँ की शिकायत वो ये न कहेंगे कि तुम्हें मौत न आई किस मुँह से करें हम शब-ए-हिज्राँ की शिकायत मशकूर-ए'जुनूँ आप हैं वहशी तिरे उन को महमिल का गिला है न बयाबाँ की शिकायत गो सब्र क़यामत का है दरकार पर ऐ दिल याँ कुफ़्र है उस दुश्मन-ए-ईमाँ की शिकायत शर्मिंदा कफ़न ने किया इस दर्जा कि ता हश्र अब जेब का शिकवा है न दामाँ की शिकायत था उन के तसव्वुर में भी इक वस्ल का आलम हो सकती है फिर क्या शब-ए-हिज्राँ की शिकायत क्यों फ़िक्र हो क्या अपने कभी दिन न फिरेंगे बे-कार है फिर गर्दिश-ए-दौराँ की शिकायत लड़ता है हवा से भी कोई लाख ख़फ़ा हो बेजा है तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की शिकायत हैं इश्क़ के बीमार भी दुनिया से निराले है दर्द के बदले उन्हें दरमाँ की शिकायत इन से न सितम का न तग़ाफ़ुल का गिला है हो जाती है हाँ पाकी-ए-दामाँ की शिकायत मंज़ूर नहीं जब उन्हें ख़ुद जल्वा दिखाना क्यों कीजिए फिर हाजिब ओ दरबाँ की शिकायत था नज़र अज़ल ही से दिल उस जान-ए-जहाँ की करते रहो यूँ अबरू-ओ-मिज़्गाँ की शिकायत मेहमाँ दिल-ए-'जौहर' का बिला-इज़्न सिधारा पैकाँ तो गया रह गई पैकाँ की शिकायत