हिजाब-ए-जिस्म-ओ-जाँ में हुस्न-ए-पिन्हाँ देख लेते हैं

By afqar-mohaniSeptember 5, 2024
हिजाब-ए-जिस्म-ओ-जाँ में हुस्न-ए-पिन्हाँ देख लेते हैं
नज़र वाले तुम्हें ता-हद-ए-इम्काँ देख लेते हैं
असीर-ए-ज़ुल्फ़ हो कर रू-ए-जानाँ देख लेते हैं
सवाद-ए-कुफ़्र में भी नूर-ए-ईमाँ देख लेते हैं


ज़माना मेरा हासिल है मैं हासिल हूँ ज़माने का
जो अहल-ए-बज़्म हैं महफ़िल का सामाँ देख लेते हैं
हमारे डूबने का वाक़ि'आ जब याद आता है
जो साहिल पर भी हैं साहिल का दामाँ देख लेते हैं


दिल इस पर आरज़ू आसूदा हो जाता है दुनिया से
कभी गर मंज़र-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ देख लेते हैं
गुज़रते हैं जनाब-ए-शैख़ जब मय-ख़ाना से हो कर
नहीं कहते ज़बाँ से कुछ मगर हाँ देख लेते हैं


तिरा ही जल्वा गो दैर-ओ-हरम दोनों में है लेकिन
जो अहल-ए-दिल हैं फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ देख लेते हैं
ज़मीं से आसमाँ से गो कहीं बिजली गिरे लेकिन
असीरान-ए-क़फ़स सू-ए-गुलिस्ताँ देख लेते हैं


पहुँच जाते हैं हम 'अफ़्क़र' वहाँ ज़ौक़-ए-तबीअ'त से
जो शायान-ए-अदब बज़्म-ए-सुख़न-दाँ देख लेते हैं
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