हो जो मुमकिन तो गया वक़्त बुलाऊँ वापस

By aftab-ranjhaMay 22, 2024
हो जो मुमकिन तो गया वक़्त बुलाऊँ वापस
ज़िंदगी फिर से तुझे ढूँड के लाऊँ वापस
कुछ तिरे नक़्श जो आँखों में छुपा रक्खे थे
सोचता हूँ इन्हें पानी में बहाऊँ वापस


एक ही क़त्ल से उस शख़्स ने कर ली तौबा
ऐ ख़ुदा तेरी क़सम सर को झुकाऊँ वापस
रोग तो रोग है कब तक मैं उठाऊँ इस को
क्या तुम्हें 'अहद-ए-वफ़ा याद दिलाऊँ वापस


कोई हमदम नहीं साथी नहीं तन्हाई है
क्यों न उस शख़्स के फिर नाज़ उठाऊँ वापस
वो तो आए थे गए जान से ख़ाली कर के
क्या ज़रूरी है कि मैं जान में जाऊँ वापस


मेरी तक़दीर कि अब वो भी नहीं हैं अपने
ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं काँटों पे लगाऊँ वापस
अब यहाँ कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं है 'बरहम'
अब तिरे शहर में किस के लिए आऊँ वापस


13486 viewsghazalHindi