हुजूम-ए-हम-नफसाँ चारा-ए-अलम न हुआ कि इस तरह ग़म-ए-तन्हा-रवी तो कम न हुआ न पूछ दश्त-ए-तलब में मता-ए-दामन-ए-ज़ीस्त ये तार तार तो होता रहा प नम न हुआ लिखी गई हैं जुनूँ की हिकायतें क्या क्या मगर वो क़िस्सा-ए-ग़म जो कभी रक़म न हुआ मिली न आबला-पायान-ए-शौक़ को मंज़िल कि फ़ासलों की तरह हौसला भी कम न हुआ रह-ए-तलब में है आसूदा-हाल मौज-ब-जिस्म ख़ुदा ख़ुदा ही रहा और सनम सनम न हुआ वो कौन हैं कि हवस रास आ गई है जिन्हें यहाँ तो इश्क़ भी चारा-गर-ए-अलम न हुआ गुमाँ हुआ मुझे एहसान-ए-ना-शनासी का जो ख़ुद-बख़ुद कोई आमादा-ए-सितम न हुआ