हुस्न-ए-फ़ानी पर हम अपना दिल फ़िदा करते रहे अब पशेमाँ हैं कि सारी उम्र क्या करते हैं हम समझते हैं जनाब-ए-शैख़ क्या करते रहे हूर-ओ-ग़िल्माँ के लिए याद-ए-ख़ुदा करते रहे ज़ब्त-ए-गिर्या ज़ब्त-ए-नाला ज़ब्त-ए-फ़र्याद-ओ-फ़ुगाँ इश्क़ में जो कुछ भी हम से हो सका करते रहे किस तरह सोए पड़े हैं चैन से ज़ेर-ए-मज़ार जो ज़मीं पर हर घड़ी महशर बपा करते रहे सच अगर पूछो तो हम काफ़िर भी हैं मोमिन भी हैं बुत-कदा में बैठ कर याद-ए-ख़ुदा करते रहे मौत ही आख़िर इलाज-ए-कारगर साबित हुई दर्द-ए-दिल बढ़ता रहा जूँ जूँ दवा करते रहे अहल-ए-हिम्मत ने तो ऐ 'सीमाब' मंज़िल मार ली हम मगर हिरमाँ-नसीबी का गिला करते रहे