नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा हमारे तौबा कर लेने से पैमाने पे क्या गुज़रा बरहमन सर को अपने पीटता था दैर के आगे ख़ुदा जाने तिरी सूरत से बुत-ख़ाने पे क्या गुज़रा मुझे ज़ंजीर कर रक्खा है उन शहरी ग़ज़ालों ने नहीं मा'लूम मेरे बा'द वीराने पे क्या गुज़रा हुए हैं चूर मेरे उस्तुख़्वाँ पत्थर से टकरा के न पूछा ये कभी तू ने कि दीवाने पे क्या गुज़रा 'यक़ीं' कब यार मेरे सोज़-ए-दिल की दाद को पहुँचे कहाँ है शम्अ' को पर्वा कि परवाने पे क्या गुज़रा