इस अहद में सुना है मजबूर आदमी से रहता है आदमी भी अब दूर आदमी से ये राज़ कब रहा है मस्तूर आदमी से ज़रदार आदमी है मज़दूर आदमी से अज़्म-ए-ख़ुदी सलामत मुश्किल भी कोई शय है अक्सर हुई मशिय्यत मजबूर आदमी से खुलती गईं हैं जब से गुमराहियों की राहें होती गई है मंज़िल ख़ुद दूर आदमी से कहता है और ही कुछ फ़ुक़्दान-ए-आदमिय्यत वैसे तो है ये दुनिया मामूर आदमी से हम-जिंस के लहू से खेलेगा कौन होली हैरत कि ये चला है दस्तूर आदमी से जब आदमी ही बनना मुश्किल है आदमी का क्यूँकर ख़ुदा बना था मंसूर आदमी से गुमनाम आदमी का दुनिया में कार-नामा मंसूब हो रहेगा मशहूर आदमी से इस दौर-ए-बेबसी में ये हाल है 'मुबारक' जीने का छिन चुका है मक़्दूर आदमी से