इस बात को भूलें न मुसलमान ख़ुदा के काफ़िर भी हक़ीक़त में हैं इंसान ख़ुदा के वो कौन है जिस को नहीं कुछ उस से शिकायत वो कौन है जिस पर नहीं एहसान ख़ुदा के बढ़ता ही चला जाता है दुनिया में तअ'स्सुब बनते ही चले जाते हैं ऐवान ख़ुदा के जलती हैं बहर-हाल गुनाहों की सज़ाएँ करते रहें हम कितने भी गुन-गान ख़ुदा के दुनिया तो हक़ीक़त में है इक रैन-बसेरा हम सब तो हैं कुछ वक़्त के मेहमान ख़ुदा के मर कर भी ज़रूरी नहीं पाएँगे रिहाई दुनिया के अलावा भी हैं ज़िंदान ख़ुदा के सोचो तो ज़रा भी नहीं इंसान की वक़अत सुध-बुध भी ख़ुदा की है दिल-ओ-जान ख़ुदा के 'पर्वाज़' कभी ग़ौर से ये बात भी सोचें इक बार भी काम आया है इंसान ख़ुदा के