इस नगरी में वो भी मगन था
By wafa-siddiquiMay 21, 2021
इस नगरी में वो भी मगन था
लोहे जैसा जिस का बदन था
आज है वो इक ख़ुश्क शजर सा
कल जो रश्क-ए-सेहन-ए-चमन था
जंगल जंगल उस की ख़ुशबू
फूल वो कब महदूद-ए-चमन था
मुझ को न आई तल्ख़-नवाई
शहद से मीठा मेरा सुख़न था
देखा न उस में अपना चेहरा
मेरे घर में जो दर्पन था
रखवालों ने ऐसे लूटा
पल में ख़ाली सब मख़्ज़न था
हाथ से वो भी छूट गया है
मेहर-ओ-वफ़ा का जो दामन था
लोहे जैसा जिस का बदन था
आज है वो इक ख़ुश्क शजर सा
कल जो रश्क-ए-सेहन-ए-चमन था
जंगल जंगल उस की ख़ुशबू
फूल वो कब महदूद-ए-चमन था
मुझ को न आई तल्ख़-नवाई
शहद से मीठा मेरा सुख़न था
देखा न उस में अपना चेहरा
मेरे घर में जो दर्पन था
रखवालों ने ऐसे लूटा
पल में ख़ाली सब मख़्ज़न था
हाथ से वो भी छूट गया है
मेहर-ओ-वफ़ा का जो दामन था
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