इस ज़ात के हिसार से निकलूँगा एक रोज़

By rana-mohammad-yusufMay 8, 2022
इस ज़ात के हिसार से निकलूँगा एक रोज़
पत्थर हटा के ग़ार से निकलूँगा एक रोज़
अन्दर की इक सदा का मुझे इंतिज़ार है
बाहर के इंतिशार से निकलूँगा एक रोज़


शाख़ों के फैलने से मिरा क़द नहीं बढ़ा
मल्बूस-ए-बर्ग-ओ-बार से निकलूँगा एक रोज़
मैं बेल बन के तेरे दरीचे तक आउँगा
पेड़ों की इस क़तार से निकलूँगा एक रोज़


ये फ़ासले तो तेरी कशिश कम न कर सके
अब तो तिरे मदार से निकलूँगा एक रोज़
इक अक्स हूँ और आँसूओं के दरमियान हूँ
शो'ला हूँ आबशार से निकलूँगा एक रोज़


उस संग-ओ-ख़िश्त से मीरी पैवस्तगी है और
निकला भी तो वक़ार से निकलूँगा एक रोज़
इक रौशनी का तख़्त मुझे लेने आएगा
ज़िंदान-ए-तंग-ओ-तार से निकलूँगा एक रोज़


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