ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया कुफ़्र को इस तरह चमकाया कि ईमाँ कर दिया तू ने ये एजाज़ क्या ऐ सोज़-ए-पिन्हाँ कर दिया इस तरह फूँका कि आख़िर जिस्म को जाँ कर दिया जिस पे मेरी जुस्तुजू ने डाल रक्खे थे हिजाब बे-ख़ुदी ने अब उसे महसूस ओ उर्यां कर दिया कुछ न हम से हो सका इस इज़्तिराब-ए-शौक़ में उन के दामन को मगर अपना गरेबाँ कर दिया गो नहीं रहता कभी पर्दे में राज़-ए-आशिक़ी तुम ने छुप कर और भी उस को नुमायाँ कर दिया रख दिए दैर ओ हरम सर मारने के वास्ते बंदगी को बे-नियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कर दिया आरिज़-ए-नाज़ुक पे उन के रंग सा कुछ आ गया इन गुलों को छेड़ कर हम ने गुलिस्ताँ कर दिया इन बुतों की सूरत-ए-ज़ेबा को 'असग़र' क्या कहूँ पर ख़ुदा ने वाए नाकामी मुसलमाँ कर दिया