जब कभी आया तो ज़िक्र-ए-मय-ए-गुलफ़ाम आया
By khalilur-rahman-azmiFebruary 27, 2024
जब कभी आया तो ज़िक्र-ए-मय-ए-गुलफ़ाम आया
कुफ़्र आया तिरे रिंदों को न इस्लाम आया
फिर कहाँ भाग के जाएँगे ये तेरे वहशी
गर तिरी ज़ुल्फ़ के साए में न आराम आया
हम तो बर्बाद थे बर्बाद ही होना था हमें
क्यों तिरी चश्म-ए-'इनायत पे ये इल्ज़ाम आया
सी लिए होंठ कि अंदेशा-ए-रुस्वाई था
फिर भी हर साँस में छुप-छुप के तिरा नाम आया
बात तो जब है बने आज कोई मेरा हरीफ़
'इश्क़ में जान गँवा देने का हंगाम आया
मय-कदे से जो चले दार-ओ-रसन तक पहुँचे
आज ये पी के बहकना भी बहुत काम आया
कुफ़्र आया तिरे रिंदों को न इस्लाम आया
फिर कहाँ भाग के जाएँगे ये तेरे वहशी
गर तिरी ज़ुल्फ़ के साए में न आराम आया
हम तो बर्बाद थे बर्बाद ही होना था हमें
क्यों तिरी चश्म-ए-'इनायत पे ये इल्ज़ाम आया
सी लिए होंठ कि अंदेशा-ए-रुस्वाई था
फिर भी हर साँस में छुप-छुप के तिरा नाम आया
बात तो जब है बने आज कोई मेरा हरीफ़
'इश्क़ में जान गँवा देने का हंगाम आया
मय-कदे से जो चले दार-ओ-रसन तक पहुँचे
आज ये पी के बहकना भी बहुत काम आया
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