जब कोई सीना-ए-गिर्दाब पे उभरा क़तरा याद आया दिल-ए-पुर-ख़ूँ के लहू का क़तरा चाह कर तुझ को भला कैसे मिले मेरा निशाँ मिल के सागर में दिखाई नहीं देता क़तरा क़तरे क़तरे ही का मरहून है दरिया का वजूद मुझ से पूछो तो हक़ीक़त में है दरिया क़तरा ग़म के दोज़ख़ में ये जल जल के बना है कुंदन तब कहीं जा के मिरी आँख से टपका क़तरा यूँ तिरे नाम से राहत दिल-ए-मुज़्तर को मिली हल्क़ में जैसे किसी प्यासे के उतरा क़तरा मुंहदिम कर ही गया शहर-ए-ग़रीबाँ के मकाँ बरसा है अब्र-ए-सियह अब के जो क़तरा क़तरा किस तरह मेरा अदू मद्द-ए-मुक़ाबिल आए रू-ब-रू 'जान' कहाँ आग के ठहरा क़तरा