जब निगाह-ए-तलब मो'तबर हो गई
By abdul-mannan-tarziApril 24, 2024
जब निगाह-ए-तलब मो'तबर हो गई
मंज़िल-ए-शौक़ दुश्वार-तर हो गई
साअत-ए-ग़म भी क्या मुख़्तसर हो गई
तेरी याद आई थी कि सहर हो गई
हर हक़ीक़त ख़ुद अपनी ख़बर हो गई
बिदअत-ए-रंग सर्फ़-ए-नज़र हो गई
रात महफ़िल में वो बे-नक़ाब आए थे
और हम ने ये समझा सहर हो गई
अपने पिंदार की लाश ढोते रहे
ज़िंदगी अपनी इस में बसर हो गई
आईने से पलटती रही हर किरन
हर नज़र अपनी ही पर्दा-दर हो गई
कोई इल्ज़ाम जल्वों पे आया नहीं
बेबसी आँख की मुश्तहर हो गई
वो जो आए तो सैलाब-ए-नूर आ गया
रौशनी ख़ुद ही सद्द-ए-नज़र हो गई
चारासाज़ी न की हैफ़ नज़रों ही ने
हम ने समझा दु'आ बे-असर हो गई
हाए फिर तेरी बातों में दिल आ गया
फिर फ़ुसूँ-साज़ तेरी नज़र हो गई
अपने इज्ज़-ए-नज़र का भरम खुल गया
बे-हिजाबी तिरी दीदा-वर हो गई
'तरज़ी' क़दमों के बदले जबीनें मिलें
ना-रसी क़िस्मत-ए-संग-ए-दर हो गई
मंज़िल-ए-शौक़ दुश्वार-तर हो गई
साअत-ए-ग़म भी क्या मुख़्तसर हो गई
तेरी याद आई थी कि सहर हो गई
हर हक़ीक़त ख़ुद अपनी ख़बर हो गई
बिदअत-ए-रंग सर्फ़-ए-नज़र हो गई
रात महफ़िल में वो बे-नक़ाब आए थे
और हम ने ये समझा सहर हो गई
अपने पिंदार की लाश ढोते रहे
ज़िंदगी अपनी इस में बसर हो गई
आईने से पलटती रही हर किरन
हर नज़र अपनी ही पर्दा-दर हो गई
कोई इल्ज़ाम जल्वों पे आया नहीं
बेबसी आँख की मुश्तहर हो गई
वो जो आए तो सैलाब-ए-नूर आ गया
रौशनी ख़ुद ही सद्द-ए-नज़र हो गई
चारासाज़ी न की हैफ़ नज़रों ही ने
हम ने समझा दु'आ बे-असर हो गई
हाए फिर तेरी बातों में दिल आ गया
फिर फ़ुसूँ-साज़ तेरी नज़र हो गई
अपने इज्ज़-ए-नज़र का भरम खुल गया
बे-हिजाबी तिरी दीदा-वर हो गई
'तरज़ी' क़दमों के बदले जबीनें मिलें
ना-रसी क़िस्मत-ए-संग-ए-दर हो गई
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