जहाँ है छत मिरी दर भी वहीं निकालता हूँ
By shakeel-azmiFebruary 29, 2024
जहाँ है छत मिरी दर भी वहीं निकालता हूँ
मैं अपने क़दमों से अपनी ज़मीं निकालता हूँ
खड़ी है फिर कोई दीवार मेरे रस्ते में
लहू-लुहान मैं फिर से जबीं निकालता हूँ
ये साँप मेरे गले से लिपटने लगते हैं
मैं अपने कुर्ते से जब आस्तीं निकालता हूँ
ज़माना हो गया तू ने जिसे गिराया था
मैं उस मकान से अब तक मकीं निकालता हूँ
ज़लील कर मुझे लेकिन बहुत ज़लील न कर
ये ज़ह्र मैं भी तो जा कर कहीं निकालता हूँ
ऐ बम्बई मैं तुझे वारता हूँ तुझ पर ही
जो तू ने मुझ को दिया है यहीं निकालता हूँ
नदी भी आज अकेली ही बहना चाहती है
तो आज मैं भी ये कश्ती नहीं निकालता हूँ
मैं अपने क़दमों से अपनी ज़मीं निकालता हूँ
खड़ी है फिर कोई दीवार मेरे रस्ते में
लहू-लुहान मैं फिर से जबीं निकालता हूँ
ये साँप मेरे गले से लिपटने लगते हैं
मैं अपने कुर्ते से जब आस्तीं निकालता हूँ
ज़माना हो गया तू ने जिसे गिराया था
मैं उस मकान से अब तक मकीं निकालता हूँ
ज़लील कर मुझे लेकिन बहुत ज़लील न कर
ये ज़ह्र मैं भी तो जा कर कहीं निकालता हूँ
ऐ बम्बई मैं तुझे वारता हूँ तुझ पर ही
जो तू ने मुझ को दिया है यहीं निकालता हूँ
नदी भी आज अकेली ही बहना चाहती है
तो आज मैं भी ये कश्ती नहीं निकालता हूँ
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