ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है कर्ब-ए-एहसास को खोने भी नहीं देता है दिल की ज़ख़्मों को किया करता है ताज़ा हर-दम फिर सितम ये है कि रोने भी नहीं देता है अश्क-ए-ख़ूँ दिल से उमँड आते हैं दरिया की तरह दामन-ए-चश्म भिगोने भी नहीं देता है उठना चाहें तो गिरा देता है फिर ठोकर से बे-ख़ुदी चाहें तो होने भी नहीं देता है हर घड़ी लगती है 'अनवर' पे नई इक तोहमत किसी इल्ज़ाम को धोने भी नहीं देता है